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कभी नरेंद्र मोदी का जबर्दस्त समर्थक रहा युवा वर्ग अब उनके बारे में क्या सोचता है?

मतदाताओं के उन वर्गों की वर्तमान सोच क्या है जिन्हें नरेंद्र मोदी का जबर्दस्त समर्थक माना जाता रहा है?

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2014 के लोकसभा चुनावों में अगर भारतीय जनता पार्टी ने अपने बूते बहुमत हासिल किया तो इसकी सबसे बड़ी वजहों में से एक यह मानी जाती है कि देश के युवा वर्ग ने जातियों की सीमा को तोड़ते हुए नरेंद्र मोदी को वोट किया. नरेंद्र मोदी के प्रति युवा वर्ग के समर्थन की झलक चुनावों के पहले से ही दिखने लगी थी. उस वक्त मोदी जहां भी कोई सभा या कार्यक्रम करते थे, नौजवानों की भारी भीड़ उमड़ आती थी. जिन क्षेत्रों में भाजपा पारंपरिक तौर पर मजबूत नहीं मानी जाती थी, वहां के युवाओं में भी उनको लेकर जबर्दस्त क्रेज था. ऐसा माहौल बन गया था मानो उनके प्रधानमंत्री बनते ही युवाओं की ज्यादातर समस्याओं का समाधान हो जाएगा.

लेकिन अब जब नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल के चार साल पूरे हो चुके हैं और सरकार चुनावी वर्ष में प्रवेश कर चुकी है तो यह जानना दिलचस्प होगा कि देश के नौजवान इनके बारे में क्या सोचते हैं और जैसा वे सोचते हैं वैसा सोचने की वजह क्या है?

नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियानों के दौरान यह कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो हर साल दो करोड़ नए रोजगार का सृजन सुनिश्चित किया जाएगा. इससे देश के शिक्षित और साक्षर दोनों तरह के युवाओं में एक नई उम्मीद जगी थी. उन्हें लगा कि अब उऩकी बेरोजगारी की समस्या खत्म होने ही वाली है. अपने अब तक के कार्यकाल में कौशल विकास के लिए कई योजनाएं मोदी सरकार ने शुरू जरूर कीं लेकिन इसके बावजूद रोजगार सृजन का जो लक्ष्य उसने रखा था, उसके आस-पास भी वह नहीं पहुंच पाई.

इससे युवाओं में नाउम्मीदी की भावना बढ़ ही रही थी कि प्रधानमंत्री ने अपने एक साक्षात्कार में यह कह दिया कि पकौड़े बेचना भी तो एक तरह का रोजगार है. रोजगार की तलाश में जुटे युवाओं को नरेंद्र मोदी का यह बयान हजम नहीं हुआ.

नरेंद्र मोदी का समर्थन करने वाले न सिर्फ अच्छे शहरी संस्थानों में पढ़ने वाले युवा थे बल्कि गांवों के कम पढ़े-लिखे युवाओं ने भी पिछले कुछ चुनावों में उनका जमकर साथ दिया. लेकिन अभी इन सभी वर्गों के युवाओं से बातचीत करने पर पता चलता है कि उनमें मोदी सरकार की नीतियों के प्रति नाराजगी घर कर रही है.

ब्रजेश त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के हैं और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई में पढ़ाई कर रहे हैं. वे कहते हैं ‘2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उसके कुछ महीने बाद वे आईआईटी में आए थे. उस वक्त आईआईटी में शायद ही कोई ऐसा छात्र या छात्रा थी जो नरेंद्र मोदी की जरा भी आलोचना करे. सबने उनसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं. लेकिन अब स्थिति इसकी उलटी है. अब आईआईटी जैसे संस्थान में इक्का-दुक्का छात्र ही ऐसे होंगे जो नरेंद्र मोदी के पहले जैसे समर्थक हों.’

ब्रजेश बताते हैं कि आईआईटी के छात्रों के लिए रोजगार कोई बड़ा प्रश्न नहीं है. उन्हें मालूम है कि किसी भी परिस्थिति में उन्हें नौकरी तो मिल ही जाएगी, भले ही अच्छी नौकरी के लिए विदेश जाना पड़े. लेकिन इन सभी छात्रों में एक सामान्य राय यह बन रही है कि यह सरकार छोटे संस्थानों से निकलने वाले युवाओं के रोजगार के लिए कुछ नहीं कर रही और बड़े संस्थानों की स्वायत्ता पर हमला कर रही है. इस सरकार की ऐसी छवि बन गई है कि यह बड़े शैक्षणिक संस्थानों पर अपनी विचारधारा और कार्यशैली थोपकर उनकी विशिष्ट पहचान को खत्म करना चाह रही है.

वहीं दूसरी तरफ कम पढ़े-लिखे युवाओं में मोदी सरकार को लेकर एक दूसरी तरह की निराशा देखने को मिल रही है. बिहार के औरंगाबाद जिले के रहने वाले साकेत कुमार लुधियाना की एक रेडिमेड कपड़ा बनाने वाली फैक्ट्री में काम किया करते थे. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं कि मुझे और मेरे जैसे लोगों को उम्मीद थी कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले हम जैसे लोगों के लिए भी मोदी सरकार जरूर कुछ करेगी, हमारा भी पीएफ कटेगा, हमें छुट्टियां मिलेंगीं, काम करने का माहौल सही होगा. जन धन खाता और कुछ बीमा योजनाओं की शुरुआत से हमारी उम्मीदें और बढ़ गईं. लेकिन नोटबंदी के आघात से हम जैसे युवा उभर नहीं पाए. ‘नोटबंदी के बाद मैं जहां काम करता था, वहां से 60-70 लोग निकाले गए. मैं भी उनमें से एक था. लुधियाना के जिस इलाके में मेरी फैक्ट्री थी, वहां के हर कारखाने की यही कहानी रही’ साकेत बताते हैं.

इसके बाद कुछ महीने अपने गांव में गुजारने के बाद साकेत और उनके चार-पांच साथियों को सूरत में कपड़ा बनाने वाली एक इकाई में काम मिल गया. वे बताते हैं कि यहां काम करते हुए दो-ढाई महीने ही हुए थे कि मोदी सरकार ने जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर लागू करने का निर्णय लिया. इसका परिणाम यह हुआ कि व्यापारियों ने इसका विरोध किया और उत्पादन ठप पड़ गया. इसके बाद फिर से साकेत और उनके साथियों की नौकरी चली गई. वे कहते हैं कि उसके बाद से वे गांव में ही या तो रोजगार गारंटी योजना के तहत या दिहाड़ी मजदूरी पर काम करते रहे हैं.

इस दौरान वे लुधियाना से लगातार संपर्क बनाये हुए थे जिसका फायदा यह हुआ कि अब वे एक बार फिर से वहां जाने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन इसमें दिक्कत यह है कि इस बार भी काम तो वे अपना पुराना वाला ही करने वाले हैं लेकिन तनख्वाह उन्हें नई मिलेगी जो पुरानी से थोड़ी कम होगी. यह पूछने पर कि मोदी सरकार ने आप जैसे लोगों के लिए कुछ किया है, वे कहते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी हमारे लिए कुछ करते तो हमें ये दिन नहीं देखना पड़ता. यह पूछने पर कि क्या वे फिर से 2019 में नरेंद्र मोदी को वोट देंगे, वे कहते हैं कि अभी से क्या कहें, सारी सरकारें तो एक जैसी ही होती हैं.

उधर पटना की अर्पिता सिंह के सामने नौकरी पाना अभी उतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी सही शिक्षा पाना. उन्होंने अभी 12वीं की परीक्षा दी है और अपने रिजल्ट का इंतजार कर रही हैं. आगे वे कानून की पढ़ाई करना चाहती हैं. वे और उनके साथ पढ़ने वाले दूसरे लोग अगले लोकसभा चुनावों में पहली बार मतदान करने की पात्रता हासिल करेंगे. मोदी सरकार के अब तक के प्रदर्शन पर वे और उनके साथी क्या सोचते हैं, इस बारे में वे कहती हैं, ‘मेरे साथ पढ़ने वाले अधिकांश लोग आगे की पढ़ाई करने बिहार से बाहर जाना चाहते हैं. कुछ तो देश के बाहर भी जाना चाहते हैं. ज्यादातर लोगों के मन में यह भाव है कि सरकारी नौकरी हासिल करना बहुत मुश्किल काम है, इसलिए निजी क्षेत्र में काम करने के लिए ही हाथ-पांव मारना चाहिए. रही बात मोदी सरकार के कार्यकाल में पर्याप्त नौकरियां नहीं मिलने की तो हम सबको यह समझना पड़ेगा कि पूरी दुनिया में सरकारी नौकरियां खत्म हो रही हैं और निजी क्षेत्र का बोलबाला बढ़ रहा है. इसके लिए सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोष देना ठीक नहीं है.’

यह पूछे जाने पर कि क्या वे और उनके साथ अगले लोकसभा चुनावों में वोट देने की पात्रता हासिल करने वाले उनके साथी मोदी के पक्ष में मतदान करेंगे, वे कहती हैं, ‘वोट तो हर कोई डालना चाहता है. लेकिन मुझे लगता है कि ज्यादातर लोग वोट डाल नहीं पाएंगे. क्योंकि सब आगे की पढ़ाई के लिए पटना से बाहर चले जाएंगे और यहां के वोटर लिस्ट में नाम होने की वजह से दूसरी जगह वे वोट डाल नहीं पाएंगे. इसके बावजूद अगर चुनाव के समय मुझे पटना में ही रहने का मौका मिला तो मैं शायद भाजपा को ही वोट दूं. क्योंकि राहुल गांधी के मुकाबले अब भी नरेंद्र मोदी को लेकर ज्यादा भरोसा पैदा होता है.’

लेकिन आगरा के आगरा कॉलेज में पढ़ने वाले अनंत त्रिपाठी नरेंद्र मोदी के अब तक के कामकाज को लेकर अर्पिता से अलग सोच रखते हैं. वे कहते हैं, ‘बाकी सब से ज्यादा मुझे उनकी ये बात अच्छी नहीं लगती कि वे अपनी पार्टी के उन लोगों पर कंट्रोल नहीं करते दिखते जो बिलकुल बेसिर-पैर की बातें करते हैं. इसका एक मतलब तो ये है कि वे कुछ भी करें आपको कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर आपको फर्क पड़ता है तो आप कुछ करना क्यों नहीं चाहते. और करना चाहते हैं तो क्या आप इतने मजबूर हैं कि वे आपकी सुनते नहीं हैं. और अगर आप कमजोर नहीं है और फिर भी वे बिना सिर-पैर की बातें करते रहते हैं तो क्या इसका मतलब ये नहीं हुआ कि वे आपकी शह पर ही ऐसा कर रहे हैं.’

राजनीति की ठीकठाक जानकारी रखने वाले अनंत बताते हैं कि पिछले दिनों भाजपा ने जिस तरह से हिंसा आदि में विश्वास करने वाले लोगों को बड़े पदों पर बैठाया है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि नरेंद्र मोदी जी खुद भी कहीं न कहीं इनके तौर-तरीकों में विश्वास रखते हैं. ऐसे कौन से लोग हैं इसके बारे में पूछने पर वे दिल्ली में भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर बग्गा और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम लेते हैं.

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