जम्मू-कश्मीर में राजनैतिक और सुरक्षा से जुड़े हालात लगातार परेशानी से भरे रहे हैं. भले ही वहां की परिस्थितियों में नब्बे के दशक के बाद से खासा सुधार देखने मिला है लेकिन इसके बावजूद घाटी में विरोध प्रदर्शनों और पत्थरबाजी के चलते लगातार अस्थिरता बनी हुई है. इन हालातों की वजह से वहां सुरक्षा बलों के सामने भी संतुलित प्रतिक्रिया देना एक बड़ी चुनौती बन जाती है. क्योंकि यदि सुरक्षा बल कोई प्रतिक्रिया न दें तो कश्मीर में अराजकता फैल जाएगी और यदि वे थोड़ी सख़्ती से निपटने की कोशिश करेंगे तो उन हालातों में जब कश्मीर के आतंकी गुटों में भर्ती होने वाले युवाओं की संख्या में चिंताजनक बढ़ोतरी हो रही है तब स्थानीय नागरिकों अलगाव की भावना और ज्यादा घर करेगी.
घाटी के लिए इस मुश्किल वक़्त में मुख्यधारा और राष्ट्रीय राजनैतिक संगठनों की भूमिका सवालों के घेरे में है. वहां चरमपंथी भावनाएं तेजी से उठ रही हैं. जम्मू और कश्मीर के बीच खाई और बढ़ चुकी है. हालात ये हैं कि यहां स्थानीय चुनाव करवाना भी बेहद मुश्किल साबित हो रहा है. बीते दिनों ‘राइजिंग कश्मीर’ के संपादक शुजात बुखारी की हत्या इस बात का संकेत है कि कश्मीर में उदारवादी आवाजों को कट्टरपंथियों द्वारा घोटा जा रहा है. साथ ही इस बात में भी कोई दोराय नहीं है कि कश्मीर में बिगड़ते हालात और आतंकवाद को भड़काने में पाकिस्तान मुख्य भूमिका निभा रहा है.
इन्हीं बातों का हवाला देते हुए पिछले महीने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पीपल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीपी) की अगुवाई वाली सरकार से समर्थन वापस लिया है और अब यहां राज्यपाल शासन लागू है. तभी से वहां पर बड़े स्तर पर राजनीतिक उथल-पुथल मचने के संकेत भी मिल रहे हैं जिनके मुताबिक पीडीपी दो भागों में बंट सकती है. पिछले दिनों पार्टी के कुछ विधायकों ने महबूबा मुफ्ती के खिलाफ बयान देकर इस संभावना को मजबूत किया है. कुछ खबरों के मुताबिक कांग्रेस सरकार गठन के लिए महबूबा मुफ्ती को समर्थन दे सकती हैं. वहीं कुछ खबरें बता रही हैं कि भाजपा पीडीपी के विद्रोही विधायकों और सज्जाद लोन की अगुवाई वाली पार्टी जैसी कुछ अन्य छोटी-मोटी पार्टियों के समर्थन से सरकार बनाने की जुगत भिड़ा रही है. हालांकि यह साफ नहीं है कि इस कवायद को राष्ट्रीय नेतृत्व का समर्थन हासिल है या नहीं, और या फिर यह सिर्फ स्थानीय नेताओं की कोशिश है.
जो भी हो लेकिन कश्मीर को ऐसे मौकापरस्त राजनैतिक गठबंधन की जरुरत नहीं है जो यहां ज्यादा अस्थिरता, ध्रुवीकरण, अलगाववाद और हिंसा को बढ़ावा दे. अभी कुछ समय के लिए यहां राज्यपाल शासन ही बेहतर विकल्प के तौर पर नज़र आता है. इस बीच राज्य में ऐसी स्थितियां बनाने की कोशिश होनी चाहिए जिसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से मजबूत हो. कश्मीर को आज लोकतंत्र की गहरी जड़ें चाहिए, न कि अस्थायी और कुटिल गठबंधन.