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मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के होने से कांग्रेस और उनका ख़ुद का क्या बन-बिगड़ सकता है?

कुक्ष लोग मानते हैं कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की चुनाव समन्वय समिति के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह दोधारी तलवार हैं जिनकी एक धार चली तब ही पार्टी को फ़ायदा होगा

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बीती 24 मई का वाक़या है. मध्य प्रदेश कांग्रेस के कार्यालय में दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में चुनाव के लिए बनी पार्टी की समन्वय समिति की बैठक हुई थी. इसके बाद प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह मीडिया से बातचीत करने वाले थे. तय समय पर उन्होंने बातचीत शुरू भी की. बताया कि वे और समन्वय समिति के अन्य सदस्य 31 मई से पूरे प्रदेश में जाएंगे. अगले तीन महीने यानी अगस्त के आख़िर तक क़रीब-क़रीब हर छोटी-बड़ी जगहों तक पहुंचकर वे नए-पुराने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को एकजुट करेंगे. इन कार्यकर्ताओं को इसी साल के अंत में होने वाले चुनाव के लिए तैयार करेंगे जिससे कि वे 15 साल से राज्य की सत्ता पर काबिज़ भाजपा को हटाने का लक्ष्य हासिल करने में मददग़ार हो सकें.

इस तरह का अपना कार्यक्रम जब वे बता चुके तो सवाल-ज़वाब की बारी आई. इस दौरान राजधानी के एक वरिष्ठ पत्रकार उनसे पूछ बैठे, ‘आपको हमेशा ऐसी ज़िम्मेदारी क्यों दी जाती है जहां नाक़ामयाबी का ठीकरा आसानी से आपके सिर पर फोड़ा जा सकता हो?’ ज़वाब देने के बज़ाय दिग्विजय हंस दिए. फिर उसी लहज़े में बोले, ‘इसका मतलब है आप दिग्विजय को जानते नहीं हैं.’

प्रदेश के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार सत्याग्रह से बातचीत में इसी प्रसंग से अपनी बात आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं, ‘दिक्क़त यही है कि मध्य प्रदेश की राजनीति में रुचि रखने वाला क़रीब-क़रीब हर शख़्स दिग्विजय को अच्छी तरह जानता है. उसे पता है कि दिग्विजय राजनीति ही पहनते-ओढ़ते हैं. सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-बतियाते, हर जगह राजनीति करते हैं. उनका हर क़दम राजनीति के गुणा-भाग से प्रेरित होता है. फिर ये कैसे मान लें कि वे समन्वय समिति के अध्यक्ष की हैसियत से संगठन और कार्यकर्ताओं को एकजुट रखने तक ही खुद को सीमित रखेंगे. वे टिकट वितरण के समय अपने समर्थकों को आगे नहीं बढ़ाएंगे? टिकट वितरण में किसी तरह की दख़लंदाज़ी नहीं करेंगे? और जब वे ऐसा कर रहे होंगे तो यक़ीनन पार्टी के नुक़सान का कारण भी बन रहे होंगे.’

इसे थोड़ा स्पष्ट करने का आग्रह करने पर वे कहते हैं, ‘दिग्विजय 10 साल मुख्यमंत्री रहे हैं. उस दौरान उन्होंने अपनी जो छवि बनाई, या यूं कह लें कि भाजपा ने उनकी ‘श्रीमान बंटाढार’ की जो छवि गढ़ी, क्या उसका दाग इस बार आड़े नहीं आएगा? बल्कि भाजपा ने तो तैयारी भी शुरू कर दी है. सुना है कि पार्टी ‘दस साल में बंटाढार’ शीर्षक वाली किताब फिर लोगों के बीच बांटने जा रही है जो 2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय से मुकाबले के लिए उसने छपवाई थी.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘लोगों के बीच बांटने के लिए एक और किताब भी छपवाई जा रही है. इसमें 1993 से 2003 के बीच के कांग्रेस सरकार के 10 साल ओर 2003 से 2018 तक भाजपा सरकार के 15 साल के कार्यकाल की तुलनात्मक जानकारियां होंगी. भाजपा की यह तैयारी अपने-अाप में प्रमाण है कि दिग्विजय को आगे बढ़ाया गया या वे ख़ुद अपनी तय भूमिका से आगे बढ़े तो चुनाव उनकी छवि के इर्द-ग़िर्द सिमट सकता है. यह स्थिति कांग्रेस के लिए नुक़सानदेह हो सकती है. यानी दिग्विजय दोधारी तलवार जैसे हैं. दायरे में रहते हुए उनकी एक धार चली तो फ़ायदे के और कहीं दोनों चल पड़ीं तो नुक़सान भी उतना ही तय मानिए.’

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के जनसंपर्क विभाग के प्रमुख संजय द्विवेदी भी ऐसा ही मानते हैं. उनके मुताबिक, ‘कमलनाथ और दिग्विजय अपनी भूमिकाओं को निभाने की ईमानदारी और अनुशासन दिखा पाए तो निश्चित तौर पर कांग्रेस इस बार भाजपा को तगड़ी चुनौती देने की स्थिति में होगी. लेकिन सवाल ये है कि राजनीति में क्या इस तरह की अपेक्षा की जाना व्यावाहारिक है? ये नेता कोई बच्चे तो हैं नहीं जिन्हें आप हाईकमान का भय दिखाकर अनुशासित रख पाएं. ये परिपक्व नेता हैं. लिहाज़ा निश्चित रूप से अपनी भूमिका और उसका दायरा भी समय अौर परिस्थिति के हिसाब से ये ख़ुद ही तय करेंगे. इसलिए इस पर स्वाभाविक सवाल तो रहेंगे ही.’

ताज़ा उदाहरण इन आशंकाओं को बल देता है

इस आकलन को हाल में ही आधार भी मिला है. अभी दो दिन पहले ही दिग्विजय ने अपने ट्विटर अकाउंट से एक तस्वीर साझा की. इसमें बताया कि यह ‘तस्वीर भोपाल के सुभाष नगर रेलवे फाटक पर बन रहे ओवरब्रिज की है. इसके एक खंभे में अभी से दरारें आ गई हैं.’ फिर उन्होंने वाराणसी में निर्माणाधीन पुल ढहने जैसा हादसा होने की आशंका भी जताई. मगर दिलचस्प बात ये रही कि यह तस्वीर पाकिस्तान के एक पुल की थी. लिहाज़ा सोशल मीडिया ने तुरंत इस मसले को लपक लिया और अब #बंटाढार रिटर्न्स के नाम से अभियान चल पड़ा है.

मगर कांग्रेस के नेता तमाम आशंकाओं को ख़ारिज़ करते हैं

अलबत्ता जहां तक कांग्रेस पार्टी का ताल्लुक है तो उसके कई वरिष्ठ पदाधिकारी तो अभी ये मानने को ही तैयार नहीं हैं कि दिग्विजय इस चुनाव में कोई बड़ी और प्रभावी भूमिका निभाने जा रहे हैं. सत्याग्रह से बातचीत में नाम न छापने की शर्त पर एक ऐसे ही पदाधिकारी कहते भी हैं, ‘आप दिग्विजय सिंह को प्रभावी मानकर ही क्यों चल रहे हैं? सच तो ये है कि नेतृत्व ने एक रणनीति के तहत इस बार तमाम नेताओं की जमावट की है. उन्हें सुनिश्चित ज़िम्मेदारियां दी हैं. इसे यूं समझिए कि प्रदेश में चूंकि पार्टी 15 साल से सत्ता से बाहर है इसलिए उसका संगठन बुरी तरह बिखरा हुआ है. आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है. इसी के मद्देनज़र दो ऐसे नेताओं को चुना गया जिनके बारे में ये माना जाता है कि वे पार्टी को इन हालात से निज़ात दिला सकते हैं.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘कमलनाथ केंद्र में लंबे समय तक उद्योग और वाणिज्य मंत्रालयों के मंत्री रहे हैं. इसलिए उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी दी गई. जिससे कि उनके अनुभव और संपर्कों का लाभ पार्टी को मिले. चुनाव में आर्थिक तंगी आड़े न आए. दिग्विजय की मध्य प्रदेश में पार्टी के संगठन पर मज़बूत पकड़ मानी जाती है. इसलिए उन्हें यह ज़िम्मा दिया गया कि वे संगठन में समन्वय करें. कार्यकर्ताओं को एकजुट करें. इसी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया की अपील युवाओं के बीच काफी है. इसे देखते हुए उन्हें चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया. यानी सभी की भूमिकाएं सीधे राष्ट्रीय नेतृत्व से तय हो रही हैं. आने वाले समय में भी राष्ट्रीय नेतृत्व ही सब कुछ तय करने वाला है. ऐसे में कोई नेता अपने दायरे से बाहर जाकर अपनी भूमिका ख़ुद परिभाषित करने लगे इसकी संभावना ही कहां बचती है? ऐसा होता भी तो दिग्विजय सिंह को राष्ट्रीय नेतृत्व से प्रदेश की राजनीतिक यात्रा शुरू करने की इजाज़त नहीं मिल जाती? पर नहीं मिली न?’

समन्वय समिति के सदस्य और वरिष्ठ कांग्रेसी महेश जोशी तो सत्याग्रह से बातचीत में सीधा सवाल ही दागते हैं, ‘आपको क्यूं लगता है कि पार्टी के रणनीतिकारों ने तमाम संभावनाओं (दिग्विजय से जुड़ीं) पर विचार नहीं किया होगा?’ फिर वे बताते हैं, ‘समन्वय समिति की पहली बैठक में दिग्विजय ने ख़ुद ही अपने सहित सभी सदस्यों की भूमिका तय कर दी है. इस समिति के सदस्य न चुनाव लड़ेंगे और न इसके लिए किसी की वक़ालत करेंगे. जिसे यह सब करना है उसे समिति की सदस्यता छोड़नी होगी. अब रही बात छवि की तो दिग्विजय की ‘श्रीमान बंटाढार’ वाली छवि किसने गढ़ी? एक अगंभीर किस्म की वाचाल महिला (उमा भारती) ने, जिन्हें आज उन्हीं की पार्टी में कोई गंभीरता से नहीं लेता. ऐसे में लोगों से अब यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि 15 साल पुरानी किसी बात को वे बहुत गंभीरता से लेंगे.’

दो मिसाल दिग्विजय के पक्ष में भी

जोशी की बात को दो ख़बरें कुछ हद तक पुष्ट भी करती हैं. इनमें पहली ख़बर समन्वय समिति की सदस्य विभा पटेल से संबंधित है. स्थानीय अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों के मुताबिक समन्वय समिति की पहली ही बैठक के दौरान भोपाल की पूर्व महापौर विभा ने चुनाव लड़ने की इच्छा ज़ाहिर कर दी थी. इस पर दिग्विजय ने उन्हें दोटूक ज़वाब दे दिया कि चुनाव लड़ना है कि समन्वय समिति से इस्तीफ़ा दे दीजिए. इसी तरह दूसरी ख़बर दिग्विजय सिंह से ही ताल्लुक़ रखती है. बताते हैं कि अभी 31 मई को जब उन्होंने ओरछा (टीकमगढ़ जिला) से प्रदेशव्यापी संपर्क-समन्वय अभियान की शुरूआत की तो किसी बुज़ुर्ग कार्यकर्ता ने ‘दिग्विजय ज़िंदाबाद’ का नारा लगा दिया. लेकिन यह सुनते ही दिग्विजय भड़क गए. उस कार्यकर्ता को उन्होंने न सिर्फ़ फटकार लगाई बल्कि उससे कान पकड़कर माफ़ी भी मंगवाई.

फिर एक सवाल ये भी कि क्या दिग्विजय ख़ुद दायरा तोड़ने की स्थिति में हैं?

यानी अभी तक स्थिति मिली-जुली सी दिख रही है. इसमें कुछ नेता और जानकार ऐसे हैं जो मानते हैं कि दिग्विजय की सक्रियता प्रदेश में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करने में मददग़ार होगी. क्योंकि पार्टी को जीत दिलाने वाले उम्मीदवार आज भी अगर किसी नेता के पास हैं तो वे दिग्विजय ही हैं. लेकिन कई ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि दिग्विजय ख़ुद ऐसा कोई जोख़िम मोल लेने की स्थिति में नहीं हैं जहां पार्टी की जीत-हार का व्यूह उनके इर्द-ग़िर्द बुन दिया जाए. ऐसे लोगों में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार शरद द्विवेदी भी हैं.

सत्याग्रह से बातचीत में शरद साफ़ कहते हैं, ‘दिग्विजय के पास इस समय विकल्प ज़्यादा नहीं हैं. गोवा में कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी होने के बावज़ूद सरकार न बना पाने का दाग अभी उनके दामन से मिटा नहीं है. पार्टी ने उनसे सभी राज्यों के प्रभार वापस ले लिया है. राष्ट्रीय महासचिव का पद भी उनसे छिन गया है. ले-देकर प्रदेश समन्वय समिति के प्रमुख का पद उनके पास बच गया है. ऐसे में उन्हें अगर राजनीति में प्रासंगिक बने रहना है. अपने सहित पुत्र और पत्नी का राजनीतिक भविष्य चमकाना है तो उनके पास इक़लौता विकल्प यही है कि वे मध्य प्रदेश में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने में यथासंभव योगदान दें. और ऐसा कुछ तो बिल्कुल भी न करें जिससे पार्टी की चुनावी संभावनाएं कमजोर होती हों क्योंकि इससे ख़ुद उनका और उनसे जुड़े लोगों का भी नुक़सान सुनिश्चित होता जाएगा.’

पर सवाल फिर वही कि क्या दिग्विजय अपनी एक धार को क़ाबू में रख पाएंगे? चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आएगा, ज़वाब मिलता जाएगा.

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