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मोबाइल ने बिगाड़ा बचपन

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आज भी याद है अपना बचपन। स्कूल की छुटटीयां लगते ही मन खिल उठता था। नानी के जाने का ख्याल ही खुशी भर देता था। ना होमवर्क, ना ही पढ़ने का डर। बस सारा दिन खेलने और मस्ती करने में ही पूरा हो जाता था। खेल भी ऐसे के बोर नहीं होते थे। सितोलिया, लगंड़ी टांग, रस्सी कूदना, छूपन छूपाई कितने सारे खेल थे। दादी के साथ चींटीयों को आटा डालने जाना, रोज सुबह दादाजी के साथ घूमने निकलना और कबूतरों को दाना खिलाना। मां के गोद में सर रखकर रोज कहानीयां सुनना और सो जाना। सब.कुछ कितना प्यारा था। ऐसा लगता था जैसे सब जरूरी हैं। बिना एक के भी मन नहीं लगता। घर के सदस्य तो थे ही अपनें लेकिन गली में घूमता वो कुता भी जिसके लिए मां रोज खाने के बाद एक रोटी बनाती थी। उसका भी इंतजार रहता था कि कब वो आएगा और कब रोटी खाएगा। गाय हमारी माता है ये तो हम बचपन से ही सुनते आ रहे है और देखते भी। गाय के आते ही प्यार से उस पर हाथ फेरना भी अपना सा लगता था। मानो वो कोई जानवर नहीं बल्कि एक सदस्य है। देखते ही देखते ये प्यारे से दिन उड़न छू हो गये और हम बड़े हो गए। अब ये बचपन अपने बच्चों में देखते हैं लेकिन वो बचपन नजर ही नहीं आता जो हमने जिया। अब बच्चें बचपन से ही बड़े से लगते है मानों सब.कुछ आता हो। कुछ सिखाने की जरूरत ही नहीं। ये सारा कमाल टेक्नालॉजी का हैं। जो खेल हमने खेले उनके नाम तो आज के बच्चे जानते भी नहीं होंगे। पैदा होते ही बच्चें का स्वागत मोंबाइल के एक क्लिक से होता हैंए उसके बाद ही दूसरी कोई रस्म होती हैं। ऐसा लगता है मानो इस टेक्नालॉजी ने बचपन को छीन लिया है।

मोबाइल किड
आजकल बच्चे बच्चे नहीं बल्कि मोबाइल किड होते जा रहे हैं। आजकल बच्चों को दादी-नानी की कहानियों से अच्छे मोबाईल में  विडियोज अच्छे लगते है। पहले छोटे बच्चे खिलोनों की आवाज सुनकर चुप हो जाया करते थे। लेकिन आजकल जब तक यूटयूब पर गाना नहीं चलाओं तब तक बच्चे चुप ही नहीं होते। ये कसूर बच्चों का नहीं बल्कि हमारा है। बच्चों के थोड़ा बड़ा होते ही हम उनको मोबाइल में गाने सुनाना, विडियो बना देते हैं। जब हमें कोई काम करना होता है तो बच्चे के पास मोबाइल रखकर उसमें कोई गाना या विडियो चलाकर अपने काम में लग जाते है। बच्चा इन्हीं चीजों का आदि हो जाता है।  बच्चों की मेमेरीज सेव करने के लिए मोबाइल अच्छा विकल्प है पर ये विकल्प ही रहे तो अच्छा है, इसे जरूरत बनाना गलत है। बचपन से ही बच्चों को मोबाइल की आदत हम ही लगाते हैं। आज के इस दौर में हर इंसान व्यस्त हैए इसलिए बच्चों को भी मोबाईल में व्यस्त करने में अभिभावक हिचकिचाते नहीं है। तभी तो आजकल का बचपनए बचपन कम और टेक्नोपन ज्यादा लगता है। छोटे-छोटे बच्चों को मोबाइल की आदत लगाना गलत है। इससे बच्चों में कई बीमारियों का जन्म होता है। आंखे कमजोर होना, इसका असर बच्चों की सुनाई पर भी पड़ सकता है। ज्यादा मोबाइल उपयोग करने से बच्चे का दिमाग भी अविकसित रह सकता है। कभी बच्चों को कहानियां और लोरी मोबाइल के बजाय खुद सुनाकर तो देखिए कितना सुकुन मिलेगा।

किताबों की जगह ली गुगल ने
स्कूल में किताबें तो आज भी पढ़ाई जाती है। लेकिन उनका सोल्यूशन बच्चें गुगल पर ढूंढते है। काम की व्यस्तता के कारण अब अभिभावक ही गूगल यूज करने के एडवाइस देते है।  आज के हालात बिल्कुल अलग है। बच्चें आजकल नतीजे 90.95 प्रतिशत तक आते हैए, बच्चें टॉप भी करते हैं। लेकिन बेसिक नॉलेज कितना है, ये तो हम सब जानते हैं। आजकल बच्चों का ये हाल है कि वो एक रटटू तोता हो गए है। मोबाइल ने किताबों की जगह ले ली हैं। किताबों में जो भाषा का ज्ञान होता है वो अब नदारद होता जा रहा हैं। अब बच्चें इंटरनेट की लेंग्वेंज बोलते नजर आते है। भाषा का बिगड़ता स्वरूप हम सबके सामने है।

आउटडोर गेम्स की जगह ली मोबाइल गेम्स ने
मोबाइल ने पांरपरिक खेलों की प्रक्रिया को ही खत्म कर दिया। बच्चों का बचपन बस मोबाइल एप्स में ही सिमट कर रह गया है। खेलों के मैदान हो या पार्क ज्यादातर सूने ही नजर आते है। मोबाइल गेम्स के कारण बच्चें एक कमरें में सिमट कर रह गऐ है। ना उन्हें किसी की जरूरत हैं ना ही वे किसी और चीज में इतनी दिलचस्पी दिखाते हैं। अब तो आलम ये है कि इनडोर गेम्स कि जगह भी मोबाइल गेम्स ने ली है। आखिर ऐसा क्या है कि बच्चें मोबाइल के होकर रह गए हैं। हर सेंकड बदलते म्यूजिक बच्चों के दिमाग पर हावी होते है। कई बार तो ग्रुप गेमिंग में बच्चें एक-दूसरे को हराने के चक्कर मे घंटों मोबाइल पर लगे रहते हैं। आउटडोर गेम्स आत्म-विश्वास और शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। साथ ही साथ निर्णय लेने की क्षमताए टीम-वर्क जैसी स्किलस का भी डेवलपमेंट होता हैए क्योकि आउटडोर गेम्स ज्यादातर टीम में खेल जाते हैं। जिससे बच्चें बहुत कुछ सिखते हैं। मोबाइल गेम्स ने बस एक ही चीज बच्चों में डेवलप की है वो है, एकाकीपन। एक स्टडी के मुताबिक 12 से 20 साल तक के किशोर बच्चों में इंटरनेट गेमिंग डिसऑर्डर कॉफी आम बात हैं। नार्थ अमेरिका और यूरोप के मुकाबले एशियाई देशों के बच्चें इंटरनेट गेमिंग डिसऑर्डर के मामले ज्यादा प्रचलित हैं। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन इंटरनेट गेमिंग  के बढ़ते मामलों पर स्टडी कर रहा हैं, इसलिए अब तक इसे बीमारियों की सूची में शामिल नहीं किया गया हैं। लेकिन जिस हिसाब से ये  बढ़ रहा है, उसे देखकर तो  लगता है कि जल्द ही ये बीमारियों की सूची में नजर आएगा। जरूरत है सावधान रहने की।

मोबाइल से बढ़ती बिमारियां
पिछले दो दशक में मोंबाइल ने हमारी जीवन शैली को प्रभावित किया हैं। कुछ काम आसान बनाए है तो कुछ मुष्किल। कई चीजे पास हो गई तो कई बहुत दूर। मोबाइल हमारे बच्चों को हमसे दूर कर रहा हैं। आजकल अभिभावकों को लगता है कि बच्चों को मोबाइल का उपयोग आना चाहिए। बेषक मोबाइल उपयोग करना आना चाहिए। लेकिन इसकी लत नहीं लगनी चाहिए। मां-बाप ये सोचकर बच्चों को मोबाइल देते है कि गर्मी में बच्चा बाहर खेलने कि जिद नहीं करेगा। थोड़ी देर मोबाइल में लगा रहेगा तो हम दो काम कर लेंगे। लेकिन ये मानसिकता गलत हैं। थोड़ी देर व्यस्त रखने के चक्कर में बच्चें कब हमसे दूर हो जाते हैंए हमें पता ही नहीं लगता। कई बार तो बच्चें ऐसी बीमारियां का षिकार हो जाते है जो हमारे आंखों के सामने होते हुए भी हम देख नहीं पाते। अब तो अभिभावक नवजात बच्चें को मोबाइल दिखाने से नहीं चुकते। लेकिन इससे जो बच्चों को शारीरिक और मानसिक नुकसान होता हैए उसकी लिस्ट भी छोटी नहीं है। आइए देखते है मोबाइल के ज्यादा उपयोग से आपका लाडला या लाडली किन खतरों से घिर जाते हैंः.

मोटापा बढ़ना.- जो बच्चें अपना ज्यादा वक्त मोबाइल में बिताते है उन बच्चों में मोटापा बढ़ने कि शिकायत होने लगती है। क्योकि बच्चें आउटडोर गेम्स नहीं खेलते। जिनसे उनकी शारीरिक कसरत नहीं हो पाती और मोटापा बढ़ने लगता हैं। बच्चों में स्फूर्ति की कमी भी देखने को मिलती हैं।

नींद की कमी- पहले बच्चें दस बजते ही सो जाया करते थे। लेकिन अब जब तक मोबाइल पर कोई गेम ना खेल ले या फिर उसमें अपने ही स्कोर को बीट ना कर ले वे सो नहीं पाते। जो आगे जाकर बच्चां में तनावए चिड़ड़िपन का रूप लेता है।

मानसिक रोग. मोबाइल के ज्यादा उपयोग से बच्चों में अकेलापन, ध्यान नहीं लगना, ऑटिज्म, अत्यधिक गुस्सा आना आदि कई ऐसे मानसिक रोग हो जाते हैं।

आक्रामकता- गेम्स में हिंसा या फिर एक दूसरे को हराने के चक्कर में बच्चों में आक्रामकता इतनी बढ़ जाती है कि वे इसे अपनी रियल लाइफ में भी आजमाने लगते हैं। अक्सर माता-पिता की बात ना सुननाए उन पर चिल्लाना ये सब इस मोबाइल की देन है।

आंखों की रोशनी कम होना . आंकड़ो के मुताबिक 12 से 18महीने  की उम्र में बच्चों के स्मार्टफोन के ज्यादा इस्तेमाल करने से आंखों को नुकसान पहुंचता हैं। बच्चों कम उम्र में ही चश्मा लग जाता हैं।

मोबाइल बनता लत
मोबाइल आज की समय की सबसे बड़ी जरूरत हैं। लेकिन ये जरूरत अब जरूरत नहीं रही बल्कि ये अब हमस ब पर हावी हो गई हैं। इसका सबसे बड़ा खतरा बच्चों को होता हैं। क्योकि वो जब सीखना षुरू करते है तो उनका विकास गलत तरीके से होता है जो कि आगे जाकर खतरा बनता हैं। आजकल बच्चों में मोबाइल के चलन ने आक्रामक रूप ले लिया हैं। एक खबर के अनुसार 15 साल के बच्चें को मोबाइल  के ऐसी लत लगी कि उसको छुड़ाने के लिए बच्चें को अस्पताल में भर्ती कराया गया। यहां तक कि उसे नॉर्मल करने के लिए मनोवैज्ञानिक कि सलाह लेनी पड़ी। मोबाइल गेम्स जानलेवा भी होते है। ब्लू.वहेलए पोकेमॉन जैसे गेम्स ने कितने बच्चों को मौत के मूंह मे धकेला है। कई गेम बच्चों के दिमाग पर असर डालते हैं। कई बार तो बच्चें मोबाइल न मिलने की सूरत में चोरी जैसे गलत काम भी करने लगते है। हरियाणा में एक बच्चें को मोबाइल कि ऐसी लत लगी कि मां ने जब उसका मोबाइल अपने पास रख लिया तो उसने आत्म.हत्या करने की कोषिष की। एक ऐसी ही घटना सामने आई बच्चा पूरी रात कमरें में मोबाइल देख रहा थाए सुबह तक उसकी आंखों की रोषनी जा चुकी था। कई बार तो बच्चें मोबाइल गेम्स में जो विज्ञापन आते है उन पर क्लिक करके देखते है तो उनमें कई विज्ञापन एडल्ट भी होते है जिससे बच्चों में पोर्न देखने की भी इच्छा जाग्रत होती हैं और बच्चें गलत कामों में पड़ जाते है। इस मोबाइल के कितने भयावह सच हमारे सामने है। जो चौंकाते है किस तरह बचपन गलत दिषा में चला जाता हैं और हम बस देखते रह जाते हैं।


इस बचपन को रहने दे
उम्र का सबसे खूबसुरत पड़ाव बचपन ही होता हैं। जब हम जिंदगी के तौर.तरीके सिखते है या फिर अपने बच्चों को सिखाते हैं। हम चाहते है कि हमारा बच्चा तेज दिमाग वाला बने। मोबाइल आज के समय की जरूरत हैं। बच्चों को मोबाइल उपयोग आना चाहिए। जिससे वे मुष्किल समय में आपसे बात कर सके। मोबाइल उनको सिखाए लेकिन उनकी लत ना बनने दे। बच्चें से बढ़कर कोई काम नहीं होता अगर ऐसा कोई काम है भी तो बच्चों को मोबाइल के बजाय खेलना सिखाए। जिससे बच्चे को मोबाइल की जरूरत ना लगे। खुद पढ़ाना सिखाए, गुगल तो बड़ा होकर वो भी कर ही लेगा। लेकिन अभी तो उसे गुगल की आदत ना डाले। व्यावाहारिक ज्ञान सबसे ज्यादा काम आता है। बच्चें को वो ही सिखाए। खेलने-कुदने की आदत बच्चों में डालें जिससे बच्चें स्वस्थ रहें। बच्चों को मोबाइल का आदि बनाने की बजाय घर के काम-काज में लगाए जिससे आपकी मदद भी होगी और बच्चों में आत्म-निर्भरता आएगी। कहानियां सुनाये, डांस करे, बच्चों के साथ खेलें। फिर देखिए आपके बच्चें आपसे दूर नहीं जाएगे। बच्चे को आपकी आदत हो टेक्नालॉजी की नहीं।

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