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सीएम के सलाहकारों के मसले पर सिर्फ राजनीति करना चाहती है भाजपा क्योंकि सरकार के खिलाफ मुद्दा ही नहीं

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अपने नवनियुक्त सलाहकारों के साथ चर्चा करते मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (फाइल इमेज)

The Angle

जयपुर।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हाल ही में 6 विधायकों को अपने सलाहकार के रूप में नियुक्त किया था। इसे लेकर भाजपा नेता नाराजगी जता रहे हैं और ये नाराजगी महज बयानी तौर पर नहीं है, बल्कि इसे लेकर राज्यपाल को पत्र भी लिखा जा चुका है। लेकिन हैरानी की बात ये है कि जिस बात के लिए भाजपा नाराजगी जता रही है, सत्ता में रहते हुए पहली बार संसदीय सचिवों की नियुक्ति उसी के कार्यकाल में हुई थी।

वसुंधरा राजे सरकार में हुई थी शुरुआत, ताकि ‘अपनों’ को संतुष्ट कर सकें

2003 में जब प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी और वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बनीं, तो उन्होंने पहली बार संसदीय सचिव भी बनाए। राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं और 15 प्रतिशत के हिसाब से मुख्यमंत्री समेत अधिकतम 30 लोगों को ही मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सकता है। कहा जाता है कि ऐसे में कुछ खास लोगों को संतुष्ट करने के लिए संसदीय सचिव बनाए गए।

2003 और 2013 में वसुंधरा राजे सरकार में ये नेता बने थे संसदीय सचिव

2008 में ओम बिड़ला, भवानी सिंह राजावत, जोगाराम पटेल, धर्मपाल चौधरी, लक्ष्मीनारायण और गोविन्द राम मेघवाल को संसदीय सचिव बनाया गया। इसी तरह 2013 में जब भाजपा की फिर से प्रदेश में सरकार बनी तो लादूराम विश्नोई, सुरेश रावत, विश्वनाथ मेघवाल, जितेन्द्र गोठवाल, भैराराम चौधरी, नरेन्द्र नागर, भीमा भाई, शत्रुघ्न गौतम, ओम प्रकाश हुड़ला, कैलाश वर्मा को बतौर संसदीय सचिव नियुक्ति दी गई थी।

2008 में संसदीय सचिवों पर कोर्ट पहुंचे थे अशोक परनामी, अपनी सरकार बनी तो वापस लिया मामला

भाजपा ने तो अपनी 2 सरकारों में संसदीय सचिव बना दिए, लेकिन विवाद हुआ 2008 में, जब प्रदेश में सरकार कांग्रेस की थी और कमान संभाल रहे थे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। इस समय भी सरकार ने परंपरा के मुताबिक कई विधायकों को संसदीय सचिव बनाया। लेकिन इस मामले को लेकर अशोक परनामी सहित भाजपा के तीन नेता हाईकोर्ट चले गए। माना जाता है कि विवाद की शुरुआत यहीं से हुई।

कोर्ट के फैसले से डरकर वसुंधरा सरकार ने ले लिए थे संसदीय सचिवों के इस्तीफे

हालांकि कांग्रेस राज में भी पूरे पांच साल संसदीय सचिव रहे। लेकिन एक और कमाल की बात ये है कि 2013 में फिर से भाजपा की सरकार बनते ही संसदीय सचिवों के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले अशोक परनामी और कालीचरण सराफ ने 2013 में अपनी याचिका वापस ले ली। इसके बाद हाईकोर्ट के फैसले के डर से तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कोर्ट का फैसला आने से पहले ही सभी संसदीय सचिवों के इस्तीफे ले लिए थे। इसके बाद कोर्ट में तारीख पड़ गई और विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

भाजपा के पास सरकार को घेरने का नहीं है कोई मुद्दा

वहीं हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा था कि उनकी सरकार ने ऐसा कोई फैसला नहीं किया है, जिससे किसी को तकलीफ हो। इसलिए सलाहकारों की नियुक्ति से किसी कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिए। ऐसे में साफ है कि भाजपा उस मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश कर रही है, जिसकी शुरुआत किसी समय में उनकी अपनी पार्टी की सरकार ने की थी। इसीलिए विवाद को देखते हुए मुख्यमंत्री ने भी अपनी तरफ से ऐसा कोई आदेश नहीं निकाला, जिससे सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन हो। उसके बावजूद भाजपा इस मुद्दे को तूल दे रही है। इससे यह भी साबित हो जाता है कि क्योंकि विपक्ष के पास सरकार को घेरने का कोई मुद्दा बाकी नहीं रह गया है, इसलिए वो फिजूल बातों को मुद्दा बनाकर राजनीति करना चाहता है।

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