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    मीडिया से जुड़े ये किस्से बताते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद मोदी कभी नेहरू नहीं बन सकते

    कई वरिष्ठ पत्रकार अपने निजी अनुभव के आधार पर बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन में मीडिया के प्रति जबरदस्त द्वेष भरा हुआ है

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    भारत की आजादी और भारतीयों की सोच के निर्धारण में यहां की प्रेस ने अहम किरदार निभाया है. देश के कई महान स्वतंत्रता सेनानी खुद पत्रकार थे. उस जमाने में लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, सुब्रमण्यम अय्यर, लाला लाजपत राय, मदन मोहन मालवीय और गोपाल गणेश आगरकर जैसे नेता ट्रिब्यून, लीडर, सुधारक, केसरी, अक़बर-ए-आज़म, द हिंदू और स्वदेश जैसे कई अख़बारों को संपादित किया करते थे. लेकिन धीरे-धीरे भारतीय राजनेताओं ने प्रेस और मीडिया से न सिर्फ दूरी बनानी शुरु की बल्कि उसके सम्मान व स्वतंत्रता को भी प्रभावित करने की कोशिश की. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात के सटीक उदहारण हैं.

    अपनी सरकार के चार वर्ष के कार्यकाल में विज्ञापनों पर 4343.26 करोड़ रुपए (यह जानकारी आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली को ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्युनिकेशन विभाग की तरफ से एक आरटीआई के जवाब में मिली) और रेडियो पर मन की बात कहने में दसियों करोड़ रुपए खर्च करने वाले मोदी ने अफसोसजनक ढंग से प्रधानमंत्री बनने के बाद एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन नहीं करवाया है. रवीश कुमार जैसे वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा सिर्फ एक बार लाइव साक्षात्कार करने की भी चुनौती पर मोदी की चुप्पी सर्वविदित है.

    जब आलोचनाएं ज्यादा होने लगीं तो प्रधानमंत्री ने अपने पसंदीदा दो समाचार चैनल, जिनमें से एक हिंदी का था और एक अंग्रेजी को अपना साक्षात्कार देने का फैसला लिया. एक सशक्त लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका को थोड़ा-बहुत भी समझने वाले लोगों ने इन साक्षात्कारों को देखकर अपना माथा पीट लिया था. साक्षात्कर के नाम पर हुए ये खेल मोदी के महिमामंडन करने के आयोजन से ज्यादा कुछ नहीं थे.

    ऐसा नहीं है कि मोदी के मन में प्रेस या पत्रकारों के प्रति असहजता या फिर द्वेष की भावना प्रधानमंत्री बनने के बाद आई है. उन्हें करीब से जानने वाले बताते हैं कि मोदी को शुरुआत से ही अपनी आलोचना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है. लेकिन गुजरात दंगों के बाद जिस तरह मीडिया ने उन्हें आड़े हाथों लिया इसने उनकी असहजता को चरम पर पहुंचा दिया. इसकी वजह से पैदा हुए संकीर्ण दुराग्रह का स्तर यह था कि वे भरी सभाओं में अपने खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को ओछी टिप्पणियों से अपमानित करने और धमकाने से नहीं चूकते थे.

    2002 में गांधीनगर में इंडियन एक्सप्रेस में कार्यरत दर्शन देसाई का किस्सा कुछ ऐसा ही है. देसाई वह पत्रकार थे जिन्होंने मोदी की पत्नी जसोदाबेन के बारे में विस्तार से तब्दीश की थी. इससे पहले देसाई 2002 के दंगों के समय भी मोदी के खिलाफ लिख चुके थे. देसाई के हवाले से मशहूर पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय मोदी के जीवन पर आधारित (सर्वाधिक संतुलित और सटीक किताबों में से एक) अपनी किताब ‘नरेंद्र मोदी : एक शख्सियत, एक दौर’ में लिखते हैं-

    देसाई ने बताया कि एक बहुत व्यस्त दिन- जो कुछ हद तक चिंतित और बैचेन करने वाला दिन भी रहा- देर शाम तक जब वह घर पहुंचे ही थे कि मोदी का फोन आया. उन्होंने कहा, ‘एजेंडा क्या है?’ ‘मोदी ने बाद में यह भी कहा कि आपने मेरे खिलाफ लिखा है. आपके अखबार ने तो मोदी मीटर तक शुरु कर दिया. वो मेरे अखबार में दंगों के दौरान शुरु किए गए कॉलम की चर्चा कर रहे थे.’ मैं बस चुप रहा. वे फिर बोले, ‘मैं जानता हूं कि आज आपने जो किया है उसका असर बहुत दूर तक जाएगा. इसलिए मैं पता करना चाहता हूं कि आपका एजेंडा क्या है?’ मैं डरा तो नहीं था, लेकिन मुझे याद है कि मैं परेशान जरूर हो गया था. और मैने कहा,’मेरा कोई एजेंडा नहीं है. आप मेरे संपादक से संपर्क कर सकते हैं.’ उन्होंने सिर्फ कहा, ‘ठीक है, इस पर और सोच लो.’ और फोन काट दिया.

    इसके बाद जब दिसंबर 2002 में विधानसभा चुनावोंं में मोदी की बड़ी जीत के बाद जब उन्होंने पत्रकारों को अपने यहां दोपहर भोज पर आमंत्रित किया तो देसाई को भी बुलावा भिजवाया था. संयोगवश उस दिन देसाई केसरिया से मिलते-जुलते रंग की कमीज पहन कर समारोह में आये थे. मोदी ने इस अवसर को हाथ से जाने दिए बिना उपहास करते हुए कहा, ‘भगवा तुम्हें शोभा नहीं देता. हरा ही बेहतर होता.’ और अपने ही मजाक पर हंस दिए. लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके. इसके बाद उन्होंंने देसाई की फ्रेंच कट दाढ़ी पर भी अपने चिर-परिचित अंदाज में जुमला कस दिया.

    इसी तरह एक अन्य पत्रकार के हवाले से मुखोपाध्याय लिखते हैं, ‘अगर तुम उन (मोदी) की आलोचना करती रिपोर्ट लिखोगे तो मोदी बदला लेने पर उतारू हो सकते हैं. सारे सूचना-सूत्र अवरुद्ध कर दिए जाएंगे. बस यही रास्ता बचेगा कि या तो किसी भी तरह ऐसी नाखुश करने वाली रिपोर्टिंग रोक दो या सिर्फ यहां-वहां की सरसरी तौर पर परेशान करती सी बातें लिखो. लेकिन ऐसा कुछ भी न लिखो कि जिससे बड़ा नुकसान हो.’

    हाल ही में अनावरित हुई वरिष्ठ पत्रकार करन थापर की चर्चित किताब ‘डेविल्स एडवोकेट : द अनटोल्ड स्टोरी’ भी इस बात को पुष्ट करती है. थापर एक प्रमुख टीवी चैनल के लिए इसी (डेविल्स एडवोकेट) नाम से एक शो होस्ट करते थे जिसमें वे कई बड़ी हस्तियों के इंटरव्यू लिया करते थे. अपनी इस किताब में थापर ने कुछ चयनित साक्षात्कारों से जुड़ी यादें साझा की हैं. लेकिन इन सभी में से जिस किस्से ने सबसे सबसे ज्यादा चर्चाएं बटोरी हैं वह उनके उस साक्षात्कार से जुड़ा है जिसमें उनके मेहमान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे. इस साक्षात्कार में थापर ने मोदी से 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल पूछे थे जिनसे मोदी खासे असहज हो गए. और महज तीन मिनट और कुछ सेकंड गुजरने के बाद उन्होंने साक्षात्कार को रोकने के लिए कह दिया था.

    थापर अपनी किताब में लिखते हैं कि मोदी इस बात को कभी नहीं भूले. और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों और प्रवक्ताओं को कड़े निर्देश दे दिए कि कोई भी व्यक्ति हमारे शो में न आए. थापर लिखते हैं कि उन्होंने इस सिलसिले में अरुण जेटली, संबित पात्रा, रविशंकर प्रसाद और अमित शाह जैसे पार्टी के कई दिग्गज नेताओं से मुलाकात की लेकिन बात नहीं बनी. उसके बाद थापर ने प्रधानमंत्री मोदी के दफ़्तर में फोन किया लेकिन उन्होंने जता दिया कि थापर को 2007 में मोदी से वे सवाल नहीं पूछने चाहिए थे. विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से थापर ज़िक्र करते हैं, ‘मोदी की मैनेजमेंट टीम ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें उसी इंटरव्यू को दिखाकर खास तैयारी करवाई थी कि वे कठिन सवालों के जवाब किस अंदाज में दिए जाने चाहिएं.’

    आगे बढ़ने से पहले एक बार अंग्रेजी में लिए गए थापर के उस साक्षात्कार जिसके सवालों से मोदी का गला सूख गया था उसके हिंदी तर्जुमा पर एक नज़र डालते हैं.

    थापर- श्रीमान मोदी आपके बारे में बात करते हुए शुरुआत करते हैं. पिछले छह सालों से आप गुजरात के मुख्यमंत्री हैं. राजीव गांधी फाउंडेशन ने गुजरात को सर्वश्रेष्ठ प्रशासित राज्य घोषित किया है. इंडिया टुडे ग्रुप ने दो अलग-अलग बार आपको सबसे कुशल मुख्यमंत्री का खिताब दिया है. लेकिन इसके बावजूद लोगों के जेहन में आपकी छवि एक ऐसे हत्यारे की है जिसने बड़ी संख्या में लोगों का क़त्ल करवाया है. उनका आरोप है कि आप मुसलमानें से पक्षपात करते हैं. क्या आपकी यह छवि परेशान करने वाली है?

    (इस समय को याद करते हुए करण थापर लिखते हैं- मोदी के चेहरा उस समय भावशून्य था… मुझे सबसे ज्यादा इस बात ने चौंकाया कि उन्होंने अंग्रेजी में अपना जवाब देना चुना. हालांकि आज उनकी अंग्रेजी लगभग धाराप्रवाह है लेकिन उस समय नहीं थी)

    मोदी- मुझे लगता है कि ‘लोग’ शब्द का इस्तेमाल ठीक नहीं. सिर्फ दो-तीन व्यक्ति ऐसे हैं जो इस तरह से बात करते हैं, मैं उनके लिए हमेशा यही कहता हूं कि भगवान उनका भला करे.

    थापर– आपका मतलब है कि यह सिर्फ दो-तीन व्यक्तियों की कही बातें हैं.

    मोदी– मैंने ऐसा नहीं कहा.

    थापर- लेकिन आप कह रहे हैं कि यह सिर्फ दो-तीन व्यक्तियों की बातें हैं.

    मोदी- ऐसी मुझे सूचना मिली.

    थापर- मैं आपका ध्यान सितंबर 2003 की तरफ ले जाना चाहुंगा जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उसने गुजरात सरकार में अपना भरोसा खो दिया है. अप्रैल 2004 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश ने ओपन कोर्ट में कहा कि आप मौजूदा वक़्त के नीरो (जब रोम जल रहा था तब वहां का यह राजा इत्मेनान से बांसुरी बजा रहा था) हैं जो असहाय बच्चों, मासूम औरतों को जलता देख पीठ कर लेता है. लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को आप से कुछ दिक्कत है!

    मोदी- करन, मेरा आपसे छोटा सा निवेदन है कि कृपया सुप्रीम कोर्ट का आदेश पढ़ें. यदि लिखित में कुछ ऐसा लिखा है तो मुझे जानकर खुशी होगी.

    थापर- निश्चित तौर पर यह लिखित में नहीं है, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. लेकिन यह कोर्ट की टिप्पणी है.

    मोदी- यदि यह कोर्ट का फैसला होता तो मैं जरूर अपना उत्तर देने में खुशी महसूस करता.

    थापर- तो क्या आपके लिए मुख्य न्यायधीश की इस आलोचना का कोई औचित्य नहीं.

    मोदी- मेरा आपसे निवेदन है कि कृपया अदालत का आदेश जांचे और जिस वाक्य को आप दोहरा रहे हैं वह मुझे दिखा दें. मुझे इस बात से खुशी होगी कि पूरे देश के लोग यह जान पाएं.

    थापर- मुख्य न्यायधीश ने यह टिप्पणी सार्वजनिक तौर पर नहीं की थी. अगस्त-2004 में जब 4600 मामलों में से चालीस फीसदी से ज्यादा 2100 मामलों को फिर से खोलने की बात कही थी. और उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें भरोसा था कि मोदी के गुजरात में न्याय नहीं हुआ था.

    मोदी- इस आदेश से मुझे खुशी होगी, और मैं अब भी खुश हूं क्योंकि इस बात का निर्णय अदालत को करना है.

    (अपनी किताब में करण थापर लिखते हैं कि- यह मेरी गलती रही कि उस समय मैंने नीरो वाली बात से जुड़े दस्तावेज़ नहीं तलाशे थे. बाद में एक करीबी द्वारा उपलब्ध करवाए कागज़ातों में इस बात का ज़िक्र मिलता है कि 12 अप्रैल 2004 को न्यायधीश दोरास्वामी राजू और अरिजित पसायत ने ज़ाहिरा हबीबुल्ला एच शेख बनाम गुजरात सरकार मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी.

    थापर आगे लिखते हैं कि- अफसोस कि उस दिन मेरे पास यह कागज़ात नहीं थे. इसकी वजह से मेरे सवालों का स्तर अपेक्षाकृत कमजोर रहा. लेकिन कमतर होने के बावजूद ये सवाल मोदी को चिढ़ाने के लिए काफी थे.)

    थापर-  मैं आपको बताता हूं कि परेशानी क्या है. 2002 में गुजरात में हुए नरसंहार के पांच साल बीत जाने के बावजूद आपको आज भी गोधरा का साया आपको डराता है. आप इस साये से पीछा छुड़ाने के लिए कुछ करते क्यों नहीं?

    मोदी- यह काम मैंने करन थापर जैसेस मीडिया के लोगों पर छोड़ दिया. उन्हें आनंदित होने दो.

    थापर- क्या मैं आपको कुछ सलाह दूं?

    मोदी- मुझे कोई आपत्ति नहीं.

    थापर- आप ये क्यों नहीं कह देते कि आपको उन हत्याओं का दुख है. आप क्यों नहीं कह देते कि प्रदेश सरकार को मुसलमानों की रक्षा के लिए कुछ ज्यादा प्रयास करने चाहिए थे.

    मोदी- मुझे जो कहना था वह मैं उस वक़्त कह चुका हूं. आप मेरे संबोधनों में इस बात को देख सकते हैं.

    थापर- तो इसे वापिस कह दीजिए.

    मोदी- यह जरूरी नहीं कि अब 2007 में, मैं उन सारे विषयों पर चर्चा करना पसंद करूं जिन पर कि आप करना चाहते हैं.

    थापर- लेकिन वापिस नहीं कहने से, अवाम को यह संदेश बार-बार नहीं देकर, आप लोगों को आपकी वह छवि गढ़ने की इजाजत दे रहे हैं जो कि शायद गुजरात के हित के लिए ठीक नहीं. क्या यह आपके हाथ में नहीं कि आप इस छवि को बदलें?

    (अपनी किताब में थापर लिखते हैं- दो-तीन मिनट के इस संवाद के बाद नरेंद्र मोदी का चेहरा भावविहीन हो चुका था. यह साफ था कि वे खुश नहीं थे. उनकी आंखे जमी हुई लग रही थीं. शायद वे खुद को शांत और स्थिर दिखाने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन अब तक उनका धैर्य जवाब दे चुका था. उन्होंने यह कहते हुए कि मुझे आराम की जरूरत है, मुझे थोड़ा पानी चाहिए, खुद ही माइक्रोफोन निकाल कर साक्षात्कार समाप्त कर दिया.

    हालांकि इस साक्षात्कर को रोकते समय मोदी बार-बार यह दोहराते सुने गए कि अपनी दोस्ती बनी रहे, मैं इसमें खुश हूं. आपकी सोच है, आप बोलते रहिए, आप करते रहिए, देखो मैं दोस्ताना संबंध बनाना चाहता हूं.)

    ऐसी न जाने कितनी किताबें और पत्रकारों के निजी अनुभव मीडिया के प्रति प्रधानमंत्री मोदी के दुराग्रहों की सारी कहानी बयां कर देने के लिए काफी है. अफसोस कि जिन जवाहर लाल नेहरू को कोसे बिना प्रधानमंत्री मोदी के संबोंधन पूरे नहीं हो पाते हैं उनसे मोदी ने इस मामले में कुछ नहीं सीखा. हालांकि मोदी ने खुद को जननेता के तौर पर स्थापित करने के लिए कई क्षेत्रों में नेहरू की नकल करने की बेहतरीन कोशिश की है (जिसकी चर्चा किसी अगली रिपोर्ट में करेंगे) लेकिन काश कि प्रेस और मीडिया की आजादी और सम्मान के मामले में भी मोदी कुछ ही दूर सही लेकिन  नेहरू के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश तो करते.

    जवाहर लाल नेहरू और प्रेस

    ‘मेरे मत से प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ एक नारा नहीं है. बल्कि यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण गुण है. यदि सरकार को प्रेस की स्वतंत्रता पसंद न हो या फिर उसे प्रेस से ख़तरा महसूस हो तब भी प्रेस की आजादी में हस्तक्षेप करना बिल्कुल जायज नहीं ठहराया जा सकता. और मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है… मैं प्रेस की पूरी आजादी का समर्थन करता हूं, फिर चाहे इसके गलत इस्तेमाल किए जाने के कितने भी ख़तरे क्यों न हों.’ देश के प्रथम प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू ने यह बात तीन दिसबंर 1950 को संसद में दिए संबोधन के दौरान कही थी.

    लेकिन यह पहली या आखिरी बार नहीं था जब नेहरू प्रेस की आजादी की पैरवी कर रहे थे. इस वाकये के करीब छह महीने बाद यानी सोलह मई 1951 को एक बार फिर सदन में बोलते हुए नेहरू ने कहा था, ‘प्रेस आधुनिक जीवन का महत्वपूर्ण भाग है, खासतौर पर किसी लोकतंत्र में. प्रेस के पास असीम शक्ति और जिम्मेदारियां हैं. प्रेस का सम्मान किया जाना चाहिए और उसे पूरा सहयोग मिलना चाहिए.’

    लेकिन सवाल यह है कि क्या नेहरू सही मायने में प्रेस की आजादी के पेरोकार थे या फिर मौजूदा नेताओं की तरह यह सिर्फ जुमलेबाजी थी? इस बात के जवाब में मशहूर अख़बार नेशनल हेराल्ड के पूर्व एडिटर एम चेलापति राव के उस लेख को पढ़ा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि- ‘नेहरू पत्रकार और प्रेस की आजादी के प्रबल समर्थक थे. वे पत्रकारिता को लोकतंत्र के सशक्त स्तंभ के तौर पर देखते थे.’ एक दिन हुआ यूं कि राव नेहरू के दफ़्तर पहुंचे तो उन्होंने उनकी टेबल पर ब्रिटिश प्रेस कमीशन की रिपोर्ट को रखा देखा. उस जमाने में ब्रिटिश प्रेस अपनी बेबाकी के लिए दुनियाभर में जानी जाती थी.

    बाद में भारत में लागू हुए वर्किंग प्रेस एक्ट (1955, 1958) इस बात की बानगी देखी जा सकती है. ये एक्ट दिखाते हैं कि नेहरू, अख़बार मालिकों की बजाय पत्रकारों की आजादी के हिमायती थे. इस प्रेस एक्ट में ऐसे प्रावधान किए गए कि अख़बार मालिक या संपादक खुद को पसंद न आने वाली ख़बरों की वजह से (जो कि सही हों) पत्रकारों का स्थानानंतरण या निलंबन न कर सकें.

    अन्य विषयों की तरह प्रेस के मामले में भी नेहरू के आदर्श महात्मा गांधी से प्रेरित थे. अजादी के पहले गांधी छह समाचार पत्रों से जुड़े हुए थे जिनमें से यंग इंडिया और हरिजन इन दोनों पत्रों को वे खुद संपादित करते थे. गांधी जी पत्रकारिता को सामाजिक कार्य के साथ ऐसा मंच मानते थे जो सभी विषयों पर मजबूत राय दे सकता था.

    हालांकि एक समय ऐसा भी आया जब नेहरू पर प्रेस की आजादी को नियंत्रित करने के आरोप लगे थे. इस बारे में विश्लेषक बताते हैं कि ये वह समय था जब देश बंटवारे से लगे सदमे से उभरने की कोशिश कर रहा था. लेकिन कुछ कट्टरवादी संगठन मीडिया की आजादी का दुरुपयोग कर सांप्रदायिकता को भड़काने वाले विषय-वस्तु से लोगों को उत्तेजित कर हिंसक होने की तरफ धकेल रहे थे. स्थितियां सुलझने की बजाय बदतर हो रही थीं और देश की अखंडता पर एक बार फिर संकट के बादल घिरते दिख रहे थे. कुछ संस्थान भूल चुके थे कि असीम आजादी के साथ असीम जिम्मेदारी भी उनके कंधे पर आई थी जिनका निर्वहन अपेक्षित था. तब जाकर नेहरू ने इस तरह के समाचार पत्रों की विषय-वस्तु को पाबंद करने का फैसला लिया जरूर लेकिन इस आदेश को कभी लागू नहीं किया गया.

    नेहरू कहते थे कि बिना प्रेस के नियंत्रण की सरकार का रवैया कैसा होता है वो मैं जानता हूं. यही कारण था कि जब उनके सामने कोई नहीं था वे बार-बार पत्रकारों को इस बात के लिए कहते थे कि उन्हें एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए. उनका मानना था कि सिर्फ आलोचना ही एक ऐसा तरीका है जिससे सरकार के प्रदर्शन को सुधारा जा सकाता है. इसलिए वे कहते थे कि न सिर्फ इन आलोचनाओं को स्वीकार करना होगा बल्कि उन्हें प्रोत्साहन भी देना चाहिए. राजनीतिकार बताते हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वालों में से ऐसा कोई भी नहीं था जिसने नेहरू की तरह अपनी आलोचनाओं को इतना प्रोत्साहित किया हो.

    इस बात के उदहारण के तौर पर आप मशहूर कार्टूनिस्ट के शंकर पिल्लई की उस प्रदर्शनी को याद कर सकते हैं जब नेहरू ने उनसे कहा था कि ‘डॉन्ट स्पेयर मी शंकर’ यानी ‘मुझे बक़्शना मत शंकर.’ शंकर उस समय अपने कार्टूनों में नेहरू की जमकर खिल्ली उड़ाया करते थे और नेहरू को भी इस बात को बखूबी भान था. लेकिन इससे ज्यादा अहसास उन्हें किसी कलाकार की संवेदनाओं और आजादी का था. यही कारण था कि जब एक बार शंकर ने अपने कार्टून में नेहरू को हांफते गधे के तौर पर दिखाकर अब्दुल्ला को उनकी पीठ पर बिठा दिया तो खुद नेहरू ने शंकर को फोन पर यह कहते हुए आमंत्रित किया कि ‘क्या आप एक गधे के साथ चाय पीना पसंद करेंगे!’ इस किस्से से आप कल्पना कर सकते हैं नेहरू का व्यक्तिव अपनी आलोचनाओं और प्रेस की आजादी के लिए कितना सकारात्मक रहा होगा? अब एक घड़ी इसी घटना की कल्पना आज के दौर में करने की कोशिश करें कि प्रधानमंत्री को गधा बताने वाले किसी कार्टूनिस्ट का क्या हश्र हो सकता है.

    नेहरू के इसी सहज स्वभाव की वजह से राजनीतिकार उनकी तुलना ब्रिटेन के महान राजनेता विस्टंन चर्चिल से करते हैं. एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी संसद में नेहरू जी से कहा था कि कई बार उनमें चर्चिल दिखाई देते हैं. नेहरू की तरह चर्चिल में भी खुद की आलोचनाओं को सहेजने के साथ अपने आप पर हंसने की अद्भुत क्षमता थी. उनसे जुड़ा एक किस्सा कुछ यूं है कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान किसी नागरिक को पुलिस ने चर्चिल को मूर्ख कहने पर गिरफ़्तार कर लिया. ब्रिटिश संसद में इस बात पर ख़ासा हंगामा हुआ. तब चर्चिल ने कहा- ‘उसका अपराध यह नहीं है कि उसने प्रधानमंत्री को मूर्ख कहा है, बल्कि यह है कि उसने युद्ध के समय एक सरकारी राज़ को उजागर कर दिया है.’ बाद में उस व्यक्ति को रिहा कर दिया गया था.

    नेहरू से जुड़ा एक वाकया ये भी है कि जब आजादी से पहले वे एक कद्दावर नेता के तौर पर उभर रहे थे और हर तरफ उनकी तारीफ हो रही थी तो इससे तंग आकर उन्होंने कलकत्ता से छपने वाले ‘द मॉडर्न रिव्यू’ नाम के अख़बार के लिए नवंबर 1937 में ‘राष्ट्रपति’ शीर्षक से एक आलेख लिखा. ‘चाणक्य’ के छद्म नाम से लिखे गए इस लेख में नेहरू ने जबरदस्त तरीके से अपनी ही आलोचना की थी. इस लेख में उन्होंने जनता की तरफ से खुद के लिए लिखा था कि उन्हें सेजर्स नहीं चाहिए. सेजर्स रोम का वह फौजी अफसर और नेता था जिसने वहां से लोकतंत्र का खात्मा करने में अहम भूमिका निभाई थी.

    लेकिन आज के दौर में इस तरह की उम्मीद करना सरासर बेमानी जैसा होगा कि यदि पत्रकार किसी नेता के खिलाफ कुछ न लिखें तो वह नेता ही अपने खिलाफ सार्वजनिक मंच से इतना कुछ लिख दे. लेकिन राहत इस बात की है कि हमारे पास कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जैसे नेता भी हैं जो पत्रकारिता के लिए इस मुश्किल वक़्त में भी पत्रकारों को खुद बुलाकर बिना हिचक के उनके सारे सवालों के जवाब देते हैं. दुआ की जानी चाहिए कि जैसे इस मामले में मोदी उनके परनाना नेहरू से प्रभावित नहीं हुए, वे भी इस क्षेत्र में मोदी से प्रभावित न होने पाएं.

     

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